नमक का दारोगा
- प्रेमचंद | कक्षा 11 हिंदी आरोह
पाठ का सारांश
यह अध्याय मुंशी प्रेमचंद के जीवन परिचय और उनके प्रसिद्ध कथा "नमक का दरोगा" की विस्तृत कथावस्तु प्रस्तुत करता है। यह कहानी प्रेमचंद की साहित्यिक शैली 'आदर्शोंन्मुख यथार्थवाद' का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
यहाँ अध्याय का विस्तृत सारांश हिंदी में, स्रोतों के समुचित उद्धरण के साथ दिया गया है:
I. लेखक परिचय: प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद (मूल नाम: धनपत राय) को हिंदी कथा-साहित्य का शिखर पुरुष माना जाता है।
- महत्व: हिंदी साहित्य के इतिहास में कहानी और उपन्यास विधा के विकास का काल-विभाजन प्रेमचंद को ही केंद्र में रखकर किया जाता रहा है (प्रेमचंद-पूर्व युग, प्रेमचंद युग, प्रेमचंदोत्तर युग)।
- साहित्यिक योगदान: प्रेमचंद ही पहले रचनाकार हैं जिन्होंने कहानी और उपन्यास की विधा को कल्पना और रूमानीयत के धुंधलके से निकालकर यथार्थ की ठोस ज़मीन पर प्रतिष्ठित किया। कथा साहित्य यथार्थ की ज़मीन से जुड़कर किस्सागोई तक सीमित न रहकर पढ़ने-पढ़ाने की परंपरा से जुड़ा।
- भाषा और संघर्ष: उनकी रचनाओं में हिंदुस्तानी (हिंदी-उर्दू मिश्रित) भाषा का विशेष योगदान रहा। बचपन अभावों में बीता, और पारिवारिक समस्याओं के कारण जैसे-तैसे बी.ए. तक की पढ़ाई की। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय होने के कारण उन्हें सरकारी नौकरी छोड़नी पड़ी। उनके जीवन का राजनीतिक संघर्ष ही उनकी रचनाओं में सामाजिक संघर्ष बनकर सामने आया, जिसमें जीवन का यथार्थ और आदर्श दोनों थे।
- शैली का विकास: प्रेमचंद ने यथार्थवाद के भीतर भी आदर्शोंन्मुख यथार्थवाद से आलोचनात्मक यथार्थवाद तक की विकास-यात्रा की।
- आदर्शोंन्मुख यथार्थवाद: यह स्वयं उन्हीं की गढ़ी हुई संज्ञा है। इसमें कटु यथार्थ का चित्रण करते हुए भी समस्याओं और अंतर्विरोधों को अंततः एक आदर्शवादी और मनोवांछित समाधान तक पहुँचा दिया जाता है। 'नमक का दरोगा' इसी शैली का मुकम्मल उदाहरण है। उनकी प्रमुख रचनाओं में 'सेवासदन', 'रंगभूमि', 'गोदान' (उपन्यास) और 'सोज़े वतन', 'मानसरोवर' (कहानी संग्रह) शामिल हैं।
II. कहानी 'नमक का दरोगा' का सारांश
'नमक का दरोगा' कहानी धन के ऊपर धर्म की जीत की कहानी है। कहानी में धर्म का प्रतिनिधित्व मुंशी वंशीधर और धन का प्रतिनिधित्व पंडित अलोपीदीन ने किया है।
1. पृष्ठभूमि और पिता का उपदेश
- नमक विभाग: जब नमक का नया विभाग बना और ईशवर-प्रदत्त वस्तु के व्यवहार पर निषेध लग गया, तो चोरी-छिपे व्यापार और घूसखोरी का सूत्रपात हुआ। दरोगा पद के लिए वकीलों तक का जी ललचाता था।
- वंशीधर की तलाश: मुंशी वंशीधर रोज़गार की तलाश में निकले। उनके अनुभवी पिता ने उन्हें सलाह दी कि नौकरी में पद की ओर ध्यान न देकर ऊपरी आय की ओर ध्यान देना चाहिए।
- पिता ने कहा कि मासिक वेतन तो "पूर्णिमासी का चाँद है" जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। जबकि ऊपरी आय "बहता हुआ स्रोत है" जिससे सदैव प्यास बुझती है।
- नियुक्ति: वंशीधर ने धैर्य, बुद्धि और आत्मावलंबन को अपना सहायक बनाया। वे जाते ही जाते नमक विभाग के दरोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए। उनका वेतन अच्छा था और ऊपरी आय का ठिकाना नहीं था, जिससे वृद्ध मुंशीजी बहुत प्रसन्न हुए।
2. पंडित अलोपीदीन और टकराव
- पंडित अलोपीदीन: वह उस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित ज़मींदार थे, लाखों रुपये का लेन-देन करते थे। अंग्रेज अफ़सर उनके मेहमान होते थे और वे बारह महीने सदाव्रत (अन्न बांटने का व्रत) चलाते थे। उन्हें लक्ष्मी जी पर अखंड विश्वास था, उनका मानना था कि "न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं"।
- गिरफ्तारी: एक जाड़े की रात को, वंशीधर ने यमुना नदी के पुल पर गाड़ियों की गड़गड़ाहट सुनी। उन्हें कुछ 'गोलमाल' का संदेह हुआ, जिसे उनके तर्क (तर्क) ने पुष्ट (भ्रम को पुष्ट) किया। वहाँ पंडित अलोपीदीन की गाड़ियों की एक लंबी कतार थी, जिनमें अवैध रूप से नमक के ढेले लदे थे।
- घूस का संघर्ष: जब अलोपीदीन आए, तो उन्होंने वंशीधर को 'घर का मामला' कहकर निपटाने की कोशिश की। वंशीधर, अपनी ईमानदारी की नई उमंग से भरकर, कड़ककर बोले कि वे उन "नमकहरामों में नहीं हैं जो कौड़ियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं"।
- धन की हार: अलोपीदीन ने पहले एक हज़ार, फिर पाँच हज़ार, फिर दस हज़ार, और अंततः हताश होकर चालीस हज़ार रुपये तक की घूस की पेशकश की। वंशीधर अटल रहे और बोले, "चालीस हज़ार नहीं, चालीस लाख पर भी असंभव है"। इस तरह, अलौकिक वीरता के साथ धर्म, धन की बहुसंख्यक सेना के सामने अकेला पर्वत की भाँति खड़ा रहा, और "धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला"।
3. न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार
- लोक प्रतिक्रिया: गिरफ्तारी के बाद शहर में हलचल मच गई। दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। दूध को पानी के नाम से बेचने वाले ग्वाले, रेलवे में बिना टिकट सफर करने वाले बाबू, और जाली दस्तावेज़ बनाने वाले सेठ—सब देवताओं की भाँति गर्दनें चला रहे थे (निंदा कर रहे थे)।
- अदालत का दृश्य: अदालत पहुँचते ही अलोपीदीन के भक्त, नौकर-चाकर, और वकील-मुख्तार उनकी सेवा में लग गए। वंशीधर के पास सत्य के सिवा कोई बल या शस्त्र नहीं था। उन्हें लगा कि न्याय भी उनकी ओर से कुछ खिंचा हुआ दिख पड़ता है, क्योंकि अदालत के कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था।
- फैसला और वंशीधर की बर्खास्तगी: डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपने निर्णय (तजवीज) में लिखा कि अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रामक हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यह कल्पना से बाहर है कि एक इतना बड़ा आदमी थोड़े लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस करेगा। वंशीधर का दोष न मानते हुए भी, मजिस्ट्रेट ने टिप्पणी की कि उनकी "नमक से मुकदमे की बढ़ी हुई नमकहलाली" ने उनके विवेक और बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। वंशीधर को उनकी कर्तव्यपरायणता का दंड मिला और मुअत्तली (बर्खास्तगी) का परवाना आ पहुँचा।
- परिवार की निराशा: वंशीधर जब भग्न हृदय घर पहुँचे, तो बूढ़े पिता ने सिर पीट लिया। उन्होंने कहा कि वंशीधर का "पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया" और उन्हें ऊपरी आय पर ध्यान देना चाहिए था। माता की जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएँ भी मिट्टी में मिल गईं।
4. आदर्शवादी निष्कर्ष
- अलोपीदीन का आगमन: एक सप्ताह बाद, संध्या के समय, पंडित अलोपीदीन वंशीधर के द्वार पर एक सजे हुए रथ पर सवार होकर पहुँचे।
- पंडित जी की विनम्रता: उन्होंने वंशीधर से कहा कि हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पड़ा, पर उन्हें परास्त (defeated) केवल वंशीधर ने किया। उन्होंने कहा कि उस रात वंशीधर ने उन्हें अधिकार-बल से हिरासत में लिया था, किंतु आज वह स्वेच्छा से उनकी हिरासत में हैं।
- स्थायी मैनेजर का पद: अलोपीदीन ने वंशीधर को अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त करने का मुहर लगा हुआ पत्र निकाला। इसमें छह हज़ार रुपये वार्षिक वेतन के अतिरिक्त रोज़ाना खर्च, घोड़े, बंगला, और नौकर-चाकर मुफ़्त थे।
- धर्मनिष्ठा की जीत: वंशीधर ने विनम्रतापूर्वक कहा कि वे इतने उच्च पद के योग्य नहीं हैं। इस पर अलोपीदीन हँसकर बोले कि उन्हें इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि उन्हें वह "मोती" मिल गया है जिसके सामने योग्यता और विद्वता की चमक फीकी पड़ जाती है।
- अंतिम प्रार्थना: अलोपीदीन ने कलम वंशीधर के हाथ में देकर प्रार्थना की कि परमात्मा उन्हें सदैव वही "बेमुराव्वत, उद्दंड, कठोर, परंतु धर्मनिष्ठ दरोगा" बनाए रखे।
- स्वीकृति: वंशीधर की आँखों में आँसू भर आए, और उन्होंने कांपते हुए हाथ से मैनेजर के कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिए। अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें गले लगा लिया।
इस प्रकार, कहानी कटु यथार्थ (नौकरी छूटना) का चित्रण करते हुए भी, अंत में वंशीधर की ईमानदारी को पुरस्कृत करके आदर्शवादी समाधान प्रदान करती है।
एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तक के प्रश्न-उत्तर
पाठ के साथ (पृष्ठ 14-15)
प्रश्न 1: कहानी का कौन-सा पात्र आपको सर्वाधिक प्रभावित करता है और क्यों?
उत्तर-
कहानी का मुख्य पात्र मुंशी वंशीधर मुझे सर्वाधिक प्रभावित करता है। इसके निम्नलिखित कारण हैं:
1. ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा:
- वंशीधर घोर भ्रष्टाचार और 'ऊपरी आय' के माहौल में भी अपनी ईमानदारी नहीं छोड़ते।
- वे अपने पिता की स्वार्थपूर्ण सलाह के विपरीत जाकर अपने कर्तव्य को सर्वोपरि रखते हैं।
2. साहस और निर्भीकता:
- वे इलाके के सबसे शक्तिशाली और धनी व्यक्ति पंडित अलोपीदीन को गिरफ्तार करने का साहस दिखाते हैं।
- वे किसी भी प्रकार के दबाव या प्रलोभन के आगे नहीं झुकते।
3. प्रलोभन पर विजय:
- पंडित अलोपीदीन उन्हें चालीस हज़ार रुपये (उस समय एक बहुत बड़ी रकम) की रिश्वत देते हैं, लेकिन वंशीधर का ईमान नहीं डगमगाता।
- यह धन के ऊपर उनके धर्म और सिद्धांतों की जीत थी।
4. चारित्रिक दृढ़ता:
- नौकरी खो देने के बाद भी वे अपने सिद्धांतों पर पछतावा नहीं करते।
- उनकी इसी दृढ़ता के कारण अंत में पंडित अलोपीदीन जैसे व्यक्ति को भी उनके सामने झुकना पड़ता है और वे उन्हें सम्मानजनक पद देते हैं।
प्रश्न 2: 'नमक का दारोगा' कहानी में पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के कौन-से दो पहलू (पक्ष) उभरकर आते हैं?
उत्तर-
पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के दो परस्पर विरोधी पहलू उभरकर आते हैं:
1. भ्रष्ट और यथार्थवादी पक्ष (नकारात्मक):
- अलोपीदीन अपने धन के बल पर समाज में प्रतिष्ठित हैं। वे मानते हैं कि 'लक्ष्मी' (धन) से सब कुछ खरीदा जा सकता है।
- वे बेझिझक नमक की तस्करी जैसा गैर-कानूनी काम करते हैं और वंशीधर को रिश्वत देने की कोशिश करते हैं।
2. गुणों के पारखी और सहृदय पक्ष (सकारात्मक):
- कहानी के अंत में उनका एक उज्ज्वल पक्ष सामने आता है। वे वंशीधर की ईमानदारी से इतने प्रभावित होते हैं कि स्वयं उनके घर पहुँच जाते हैं।
- वे वंशीधर को अपनी सारी जायदाद का मैनेजर नियुक्त करके उनकी ईमानदारी को पुरस्कृत करते हैं, जो यह दिखाता है कि वे गुणों की कद्र करना जानते हैं।
प्रश्न 3: कहानी के लगभग सभी पात्र समाज की किसी-न-किसी सच्चाई को उजागर करते हैं। निम्नलिखित पात्रों के संदर्भ में पाठ से उस अंश को उद्धृत करते हुए बताइए कि यह समाज की किस सच्चाई को उजागर करते हैं -
(क) वृद्ध मुंशी (ख) वकील (ग) शहर की भीड़
उत्तर-
(क) वृद्ध मुंशी:
- सच्चाई: समाज में अनुभव को धन और व्यावहारिकता से जोड़ने की प्रवृत्ति।
- उद्धरण: "मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है।"
(ख) वकील:
- सच्चाई: न्याय व्यवस्था में धन का प्रभाव और वकीलों का अपने पेशे के प्रति व्यावसायिक (अनैतिक) दृष्टिकोण।
- उद्धरण: "वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पड़े।" (यह दिखाता है कि वकीलों ने सत्य का नहीं, बल्कि धन का साथ दिया।)
(ग) शहर की भीड़:
- सच्चाई: समाज या भीड़ का दोहरा चरित्र, जो तमाशा देखने और निंदा करने में आगे रहती है।
- उद्धरण: (जब अलोपीदीन पकड़े गए) "भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा।" और (जब वे बरी हुए) "...(वंशीधर पर) व्यंग्य-बाणों की वर्षा होने लगी।"
प्रश्न 4: "नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना..." ... "लड़कियाँ हैं, वे घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं।" ... "मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ..." - इन पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
(क) "नौकरी में ओहदे...":
- अर्थ: वृद्ध मुंशी की सलाह है कि पद (वेतन) पर नहीं, बल्कि 'चढ़ावे' (रिश्वत/ऊपरी आय) पर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि वेतन तो पूर्णिमा के चाँद की तरह घटकर समाप्त हो जाता है।
(ख) "लड़कियाँ हैं, वे घास-फूस...":
- अर्थ: यह समाज की लड़कियों को 'बोझ' समझने की मानसिकता को दर्शाता है। वे जल्दी बड़ी (विवाह योग्य) हो जाती हैं और उनके विवाह की चिंता पिता को सताने लगती है।
(ग) "मैं कगारे पर का वृक्ष...":
- अर्थ: 'कगारे का वृक्ष' यानी नदी किनारे का पेड़ जो कभी भी गिर सकता है। वृद्ध मुंशी अपनी बढ़ती उम्र और मृत्यु के करीब होने की बात कह रहे हैं।
पाठ के आस-पास (पृष्ठ 15)
प्रश्न 5: कहानी के अंत में अलोपीदीन के वंशीधर को मैनेजर नियुक्त करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
उत्तर-
अलोपीदीन द्वारा वंशीधर को मैनेजर नियुक्त करने के पीछे मुख्य कारण:
1. ईमानदारी की परख:
- अलोपीदीन समझ गए थे कि जो व्यक्ति चालीस हज़ार की रिश्वत ठुकरा सकता है, वह कभी बेईमानी नहीं करेगा।
- उन्हें अपनी विशाल संपत्ति की देखभाल के लिए ऐसे ही एक विश्वसनीय व्यक्ति की आवश्यकता थी।
2. आत्मग्लानि:
- अलोपीदीन को वंशीधर जैसे कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति को नौकरी से हटवाने पर पश्चाताप हो रहा था।
- वे अपनी गलती का प्रायश्चित करना चाहते थे।
3. ईमानदारी का सम्मान:
- अलोपीदीन ने धन के बल पर सबको खरीदा था, लेकिन वंशीधर के सामने वे हार गए थे।
- उन्होंने वंशीधर को नियुक्त करके असल में उनकी ईमानदारी और उनके सिद्धांतों का सम्मान किया।
प्रश्न 6: दारोगा वंशीधर... मैनेजर की नौकरी को तैयार हो जाता है। आपके विचार से वंशीधर का ऐसा करना उचित था? आप उसकी जगह होते तो क्या करते?
उत्तर-
मेरे विचार से वंशीधर का यह निर्णय लेना उचित था, क्योंकि:
1. अलोपीदीन का हृदय-परिवर्तन:
- वंशीधर ने उस अलोपीदीन को गिरफ्तार किया था जो एक तस्कर था। लेकिन नौकरी का प्रस्ताव उस अलोपीदीन ने दिया जो बदल चुका था और ईमानदारी का सम्मान करना सीख गया था।
2. ईमानदारी का पुरस्कार:
- वंशीधर ने अपनी ईमानदारी के कारण नौकरी खोई थी। यह नई नौकरी उसी ईमानदारी के लिए मिला एक पुरस्कार थी, कोई समझौता नहीं।
3. सही मंच का मिलना:
- सरकारी विभाग में उन्हें भ्रष्ट तंत्र ने हरा दिया था। यहाँ उन्हें अपनी ईमानदारी से काम करने की पूरी स्वतंत्रता मिल रही थी।
अगर मैं वंशीधर की जगह होता/होती:
- मैं भी शायद यही करता/करती। जब एक प्रभावशाली व्यक्ति स्वयं आपके सिद्धांतों के आगे झुक जाए और आपको सम्मान सहित एक ज़िम्मेदारी सौंपे, तो उसे स्वीकार करना अपने सिद्धांतों की जीत को स्वीकार करना है।
महत्वपूर्ण शब्दावली
- दारोगा: पुलिस का एक अधिकारी, सब-इंस्पेक्टर
- निगाह: नज़र, दृष्टि
- पीर का मज़ार: संत की दरगाह या समाधि
- ऊपरी आय: रिश्वत, घूस
- पूर्णमासी का चाँद: महीने में एक बार पूरा दिखने वाला चाँद (यहाँ- वेतन)
- सदाव्रत: हमेशा चलने वाला अन्नक्षेत्र या भंडारा
- कर्तव्यनिष्ठा: अपने कर्तव्य या ज़िम्मेदारी के प्रति दृढ़ रहना
- मुअत्तिल: निलंबित, सस्पेंड
- यथार्थवादी: व्यावहारिकता पर ज़ोर देने वाला
- आदर्शवादी: सिद्धांतों और मूल्यों पर ज़ोर देने वाला
- सहृदयता: दयालुता, अच्छे हृदय वाला होना
समझने के लिए टिप्स:
- इस कहानी को केवल एक कहानी नहीं, बल्कि एक विचार के रूप में पढ़ें।
- मुख्य संघर्ष 'धन बनाम धर्म' (या 'यथार्थ बनाम आदर्श') है। इसे पहचानने का प्रयास करें।
- वंशीधर और उनके पिता के विचारों की तुलना करें।
- पंडित अलोपीदीन के चरित्र के दोनों पक्षों (नकारात्मक और सकारात्मक) पर ध्यान दें।
- कहानी के अंत पर विचार करें कि क्या यह एक आदर्शवादी अंत है या यथार्थवादी।