गलता लोहा
- शेखर जोशी | कक्षा 11 हिंदी आरोह
पाठ का सारांश
'गलता लोहा' प्रसिद्ध कथाकार शेखर जोशी द्वारा लिखित एक सामाजिक यथार्थवादी कहानी है, जो जातिगत विभाजन और सामाजिक विषमता पर गहरी टिप्पणी करती है। यह कहानी दो मुख्य पात्रों—धनराम (लोहार) और मोहन (पुरोहित खानदान का मेधावी छात्र)—के जीवन के माध्यम से भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव और शिक्षा व्यवस्था की विसंगतियों को उजागर करती है।
कहानी की शुरुआत स्कूल के दृश्य से होती है, जहाँ मास्टर त्रिलोक सिंह धनराम को तेरह का पहाड़ा याद न कर पाने पर अपमानित करते हैं और कहते हैं कि उसके दिमाग में लोहा भरा है, विद्या का ताप नहीं लगेगा। यह कथन धनराम के मन में गहरी हीनता का भाव भर देता है। धनराम स्कूल छोड़कर अपने पिता गंगाराम का लोहार का धंधा संभाल लेता है और घन चलाने की विद्या सीख लेता है।
दूसरी ओर, मोहन एक मेधावी छात्र है जिसे मास्टर त्रिलोक सिंह का विशेष स्नेह प्राप्त है। वह छात्रवृत्ति पाता है और आगे पढ़ने का सपना देखता है। उसके पिता वंशीधर की आर्थिक स्थिति कमजोर है, लेकिन वे मोहन को आगे पढ़ाना चाहते हैं। रमेश (बिरादरी का व्यक्ति) मोहन को लखनऊ ले जाने की पेशकश करता है, लेकिन वहाँ मोहन को घरेलू नौकर जैसी स्थिति में काम करना पड़ता है और उसका मेधावी व्यक्तित्व कुंद हो जाता है।
कहानी का महत्वपूर्ण मोड़ तब आता है जब मोहन तकनीकी स्कूल से पढ़ाई पूरी करके गाँव लौटता है। वह अपने खेत के किनारे की झाड़ियाँ काटने के लिए हँसुवे में धार लगवाने धनराम की भट्ठी पर आता है। वहाँ वह देखता है कि धनराम लोहे की एक मोटी छड़ को गोलाई में मोड़ने में असफल हो रहा है। मोहन बिना किसी संकोच के हस्तक्षेप करता है, सँडसी से लोहे को स्थिर करता है और अभ्यस्त हाथों से त्रुटिहीन गोला बना देता है। उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी।
यह कहानी इस बात को रेखांकित करती है कि जातिगत रूढ़ियाँ और सामाजिक विभाजन कैसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों के जीवन को प्रभावित करते हैं। 'गलता लोहा' का प्रतीकात्मक अर्थ है—जातिगत बंधनों का पिघलना और मानवीय मूल्यों का उभरना। यह कहानी शिक्षा, श्रम और सामाजिक न्याय के प्रश्नों को उठाती है।
एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तक के प्रश्न-उत्तर
पाठ के साथ (पृष्ठ 65)
प्रश्न 1: कहानी के उस प्रसंग का उल्लेख करें, जिसमें किताबों की विद्या और घन चलाने की विद्या का ज़िक्र आया है।
उत्तर-
यह प्रसंग तब आया जब मास्टर त्रिलोक सिंह ने धनराम को तेरह का पहाड़ा याद न कर पाने पर अपमानित किया।
1. किताबों की विद्या का प्रसंग: मास्टर त्रिलोक सिंह ने गुस्से में धनराम को फटकारते हुए कहा था, "तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें!"। धनराम के पिता गंगाराम की इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि वह किताबों की विद्या का ताप लगा सकें।
2. घन चलाने की विद्या का प्रसंग: धनराम के हाथ-पैर चलाने लायक होते ही, बाप ने उसे धौंकनी फूँकने या सान लगाने के कामों में उलझाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उसने हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सीख ली और गंगाराम की विरासत संभाल ली।
प्रश्न 2: धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी क्यों नहीं समझता था?
उत्तर-
धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी (मुकाबला करने वाला) नहीं समझता था, इसके निम्नलिखित कारण थे:
1. जातिगत हीनता: बचपन से ही उसके मन में बैठा दी गई जातिगत हीनता का भाव था। मोहन ब्राह्मण टोले (पुरोहित खानदान) का था, जबकि धनराम शिल्पकार टोले का।
2. अधिकार भाव: धनराम इस बात को मोहन का अधिकार ही समझता था कि वह (मोहन) मास्टर त्रिलोक सिंह के आदेश पर सजा पाए छात्रों (हमजोलियों) के कान खिंचवाए या उन्हें बेंत मारे।
3. भविष्यवाणी का प्रभाव: मास्टर त्रिलोक सिंह ने यह भविष्यवाणी की थी कि मोहन एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनकर स्कूल का नाम ऊँचा करेगा। इस बात ने धनराम के लिए किसी और तरह से सोचने की गुंजाइश ही नहीं रखी थी।
प्रश्न 3: धनराम को मोहन के किस व्यवहार पर आश्चर्य होता है और क्यों?
उत्तर-
धनराम को मोहन के शिल्पकार टोले में आकर लोहार का काम करने में हस्तक्षेप करने पर आश्चर्य होता है।
1. आश्चर्य का कारण: धनराम लोहे की एक मोटी छड़ को गोलाई में मोड़ने की कोशिश कर रहा था, लेकिन निहाई पर सिरा ठीक घाट में न फँसने के कारण वह सफल नहीं हो पा रहा था। मोहन ने संकोच त्यागकर हस्तक्षेप किया, सँडसी से लोहे को स्थिर किया, और अभ्यस्त हाथों से ठोकते-पीटते त्रुटिहीन गोले का रूप दे डाला।
2. व्यवहार पर आश्चर्य: धनराम को मोहन की कारीगरी पर उतना आश्चर्य नहीं हुआ, जितना पुरोहित खानदान के एक युवक का इस तरह के काम में, उसकी भट्ठी (आफर) पर बैठकर, हाथ डालने पर हुआ था। ब्राह्मण टोले के लोगों के लिए शिल्पकार टोले में बैठना मर्यादा के विरुद्ध माना जाता था।
प्रश्न 4: मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को लेखक ने उसके जीवन का एक नया अध्याय क्यों कहा है?
उत्तर-
लेखक ने मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को उसके जीवन का एक नया अध्याय कहा है, क्योंकि उसका जीवन गाँव के मेधावी छात्र के जीवन से बिल्कुल अलग हो गया था:
1. मेधावी से नौकर बनना: गाँव में वह पुरोहिती से ऊपर उठकर बड़ा आदमी बनने का सपना देख रहा था, लेकिन लखनऊ में वह रमेश के घर घरेलू नौकर की हैसियत में आ गया।
2. कामकाज में व्यस्तता: वह चाची और भाभी का हाथ बँटाने के अलावा मुहल्ले की अन्य महिलाओं के लिए भी काम-काज में हाथ बँटाने का साधन बन गया।
3. पहचान का अभाव: नये वातावरण और रात-दिन के काम के बोझ के कारण, गाँव का वह मेधावी छात्र शहर के स्कूली जीवन में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। उसका जीवन एक बँधी-बंधाई लीक पर चलता रहा।
प्रश्न 5: मास्टर त्रिलोक सिंह के किस कथन को लेखक ने ज़बान के चाबुक कहा है और क्यों?
उत्तर-
मास्टर त्रिलोक सिंह के इस कथन को लेखक ने ज़बान के चाबुक कहा है: "तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें!"।
1. ज़बान के चाबुक का कारण: यह कथन धनराम को शारीरिक दंड (बेंत का उपयोग) दिए बिना मानसिक पीड़ा और अपमान देने वाला था।
2. कथन की गंभीरता: मास्टर का यह कथन सीधे तौर पर शिल्पकार जाति के प्रति भेदभाव और अविश्वास को दर्शाता था। इससे धनराम के मन में यह विश्वास पक्का हो गया कि वह लोहार होने के कारण किताबों की विद्या ग्रहण करने में असमर्थ है, क्योंकि उसका दिमाग लोहे जैसा भारी है।
प्रश्न 6(1): बिरादरी का यही सहारा होता है।
क) किसने किससे कहा?
उत्तर-
यह बात बूढ़े वंशीधर जी ने रमेश से भरे गले से कही थी।
ख) किस प्रसंग में कहा?
उत्तर-
यह प्रसंग तब आया जब रमेश ने छुट्टियों में गाँव आने पर, वंशीधर की मोहन की आगे की पढ़ाई के संबंध में चिंता सुनी और सहूलियत दिखाते हुए मोहन को अपने साथ लखनऊ ले जाकर पढ़ाने का सुझाव दिया।
ग) किस आशय से कहा?
उत्तर-
वंशीधर ने यह बात कृतज्ञता, आभार और आशा के आशय से कही। उन्हें लगा कि रमेश (बिरादरी का व्यक्ति) साक्षात् भगवान के रूप में आए हैं और बिरादरी का सहारा देकर उनके वंश का दारिद्र्य (गरीबी) मिटा देंगे।
घ) क्या कहानी में यह आशय स्पष्ट हुआ है?
उत्तर-
नहीं, कहानी में यह आशय स्पष्ट नहीं हुआ है। रमेश ने बिरादरी का नाम इस्तेमाल किया, लेकिन लखनऊ में मोहन को घरेलू नौकर से अधिक हैसियत नहीं दी। मोहन को सुविधा की जगह असुविधा मिली और उसका भविष्य बंद गया।
प्रश्न 6(2): उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी— कहानी का यह वाक्य—
क) किसके लिए कहा गया है?
उत्तर-
यह वाक्य मोहन के लिए कहा गया है।
ख) किस प्रसंग में कहा गया है?
उत्तर-
यह प्रसंग तब आया जब मोहन ने धनराम की भट्ठी पर बैठकर, लोहे की मोटी छड़ को कुशलतापूर्वक ठोक-पीटकर त्रुटिहीन गोलाई का सुघड़ गोला बना दिया था।
ग) यह पात्र-विशेष के किन चारित्रिक पहलुओं को उजागर करता है?
उत्तर-
यह मोहन के निम्नलिखित चारित्रिक पहलुओं को उजागर करता है:
1. सर्जक की कुशलता: यह चमक मोहन की जन्मजात कारीगरी और शिल्पकार हुनर को दर्शाती है।
2. जातिगत रूढ़ियों का खंडन: मोहन ने ब्राह्मण टोले की सामाजिक मर्यादा और संकोच को त्यागकर शारीरिक श्रम और शिल्प को महत्व दिया।
3. निःस्वार्थ संतुष्टि: उसकी चमक में न स्पर्धा थी और न ही किसी प्रकार की हार-जीत का भाव था। उसे अपने काम की त्रुटिहीन सफलता से संतुष्टि मिली।
पाठ के आस-पास
प्रश्न 1: गाँव और शहर, दोनों जगहों पर चलने वाले मोहन के जीवन-संघर्ष में क्या फ़र्क है? चर्चा करें और लिखें।
उत्तर-
मोहन के जीवन संघर्ष में यह फर्क था कि गाँव में उसका संघर्ष भौगोलिक था, लेकिन लक्ष्योन्मुख था, जबकि शहर में उसका संघर्ष सामाजिक और मानसिक था जिसने उसके मेधावी व्यक्तित्व को समाप्त कर दिया।
1. गाँव का संघर्ष: गाँव में संघर्ष का स्वरूप सीधा और भौतिक था। उसे स्कूल जाने के लिए चार मील की दूरी तय करनी पड़ती थी, जिसमें बरसात के मौसम में नदी पार करने की समस्या भी थी। इस संघर्ष के बावजूद वह मेधावी रहा, छात्रवृत्ति प्राप्त की और पिता के प्रोत्साहन से भरा रहा।
2. शहर का संघर्ष: शहर में उसका संघर्ष रमेश के घर घरेलू नौकर (हाथ बँटाने का साधन) बनने का था। काम के बोझ के कारण उसकी मेधावी बुद्धि कुंद हो गई। वह अपनी वास्तविक स्थिति को घरवालों को बताकर दुखी नहीं करना चाहता था। यह संघर्ष परिस्थितियों से समझौता करने की विवशता का था, जहाँ उसके भविष्य को दूसरों की सुविधा-असुविधा (रमेश) के लिए त्याग दिया गया।
प्रश्न 2: एक अध्यापक के रूप में त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व आपको कैसा लगता है? अपनी समझ में उनकी खूबियों और खामियों पर विचार करें।
उत्तर-
मास्टर त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व कड़े अनुशासन और मेधा के सम्मान के साथ-साथ जातिगत रूढ़ियों और क्रूरता से भरा हुआ था।
1. खूबियाँ:
• मेधा की पहचान: वह मोहन जैसे कुशाग्र बुद्धि और गायन में बेजोड़ छात्रों को पहचानते थे और प्रोत्साहित करते थे (उसे स्कूल का मॉनिटर बनाया)।
• अनुशासन: उनकी छड़ी का डर बच्चों में आख़िरी दम तक बना रहता था। वह स्कूल में कड़ा अनुशासन रखते थे।
2. खामियाँ:
• जातिगत भेदभाव: वह ब्राह्मण छात्रों (मोहन) से शिल्पकार टोले के छात्रों (धनराम) को दंड दिलवाते थे।
• अपमानजनक भाषा: उन्होंने धनराम को उसकी जाति और बुद्धि के आधार पर अपमानित करने के लिए ज़बान के चाबुक का इस्तेमाल किया।
• क्रूर दंड प्रणाली: सजा पाने वाले से ही अपने लिए हथियार (बेंत) जुटवाना उनका सामान्य नियम था, जिसमें मास्टर की संतुष्टि का ध्यान रखा जाता था।
प्रश्न 3: गलता लोहा कहानी का अंत एक ख़ास तरीक़े से होता है। क्या इस कहानी का कोई अन्य अंत हो सकता है? चर्चा करें।
उत्तर-
गलता लोहा कहानी का अंत खास तरीके से मोहन के निःसंकोच भाव से धनराम की भट्ठी (आफर) पर बैठकर लोहा मोड़ने और त्रुटिहीन गोलाई देने से होता है। यह अंत जातिगत मर्यादाओं के टूटने और मेहनतकशों के सच्चे भाईचारे की प्रस्तावना करता है, जहाँ लोहा गलकर नया आकार लेता है।
एक अन्य संभावित अंत हो सकता है, लेकिन वह लेखक के प्रगतिशील दृष्टिकोण के विपरीत होगा:
1. निराशाजनक या यथार्थवादी अंत: मोहन लखनऊ में तकनीकी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद भी कारखानों और फैक्ट्रियों के चक्कर लगाने के बाद बेरोज़गार रह जाता। गाँव लौटकर वह वंशीधर के बूते की पुरोहिती संभालने की कोशिश करता। वह हँसुवे में धार लगवाने धनराम की दुकान पर आता, लेकिन ब्राह्मण टोले की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए खड़े-खड़े बातचीत निपटाकर चला जाता। वह लोहे को नहीं छूता और पुरानी रूढ़ियाँ नहीं गलती। यह अंत सामाजिक विषमता को स्थायी रूप देता।
भाषा की बात
प्रश्न 1: पाठ में निम्नलिखित शब्द लौहकर्म से संबंधित हैं। किसका क्या प्रयोजन है? शब्द के सामने लिखिए—
उत्तर-
1. धौंकनी: लोहार या सुनारों की आग दहकाने वाली लोहे या बाँस की नली है।
2. दराँती: घास काटने का औज़ार (हँसुवे का पर्याय) है।
3. सँडसी: गर्म लोहे को पकड़कर स्थिर करने का औज़ार है।
4. आफर: लोहार की दुकान या कार्यस्थल है, जहाँ भट्ठी होती है।
5. हथौड़ा: लोहे को पीटकर आकार देने का औज़ार है।
प्रश्न 2: पाठ में काट-छाँटकर जैसे कई संयुक्त क्रिया शब्दों का प्रयोग हुआ है। कोई पाँच शब्द पाठ में से चुनकर लिखिए और अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए।
उत्तर-
1. काट-छाँटकर: मोहन खेतों के किनारे उग आई काँटेदार झाड़ियों को काट-छाँटकर साफ़ कर आने के उद्देश्य से घर से निकला था।
2. उलट-पलट रहा था: धनराम दाएँ हाथ से भट्ठी में गर्म होते लोहे को उलट-पलट रहा था।
3. बनकर लौटेगा: वंशीधर को विश्वास था कि मोहन एक दिन बड़ा अफसर बनकर लौटेगा।
4. चल बसे: एक दिन गंगाराम अचानक चल बसे तो धनराम ने उनकी विरासत संभाल ली।
5. ठोकते-पीटते: मोहन ने अभ्यस्त हाथों से लोहे को निहाई पर रखकर ठोकते-पीटते सुघड़ गोले का रूप दे डाला।
प्रश्न 3: बूते का प्रयोग पाठ में तीन स्थानों पर हुआ है। उन्हें छाँटकर लिखिए और जिन सन्दर्भों में उनका प्रयोग है, उन सन्दर्भों में उन्हें स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
1. बूढ़े वंशीधर जी के बूते का अब यह सब काम नहीं रहा।
सन्दर्भ: इसका प्रयोग वंशधर की बढ़ती उम्र के कारण हुई शारीरिक शक्ति की कमी (सामर्थ्य) के लिए किया गया है। वे अब खेतों के किनारे उग आई झाड़ियों को काटने जैसा कठिन श्रम नहीं कर सकते थे।
2. यह दो मील की सीधी चढ़ाई अब अपने बूते की नहीं।
सन्दर्भ: इसका प्रयोग रुद्रीपाठ करने गणनाथ जाने के लिए आवश्यक शारीरिक क्षमता (बल) के अभाव को दर्शाने के लिए किया गया है। उनका जर्जर शरीर अब यह कठिन श्रम नहीं झेल पाता था।
3. जनम भर जिस पुरोहिती के बूते पर उन्होंने घर संसार चलाया था...
सन्दर्भ: यहाँ बूते का प्रयोग आधार, सहारे या माध्यम के अर्थ में किया गया है। वंशीधर ने पीढ़ियों से चले आ रहे पैतृक धंधे (पुरोहिती) को ही अपनी आजीविका का आधार बनाकर घर संसार चलाया था।
प्रश्न 4: मोहन! थोड़ा दही तो ला दे बाज़ार से। मोहन! ये कपड़े धोबी को दे तो आ। मोहन! एक किलो आलू तो ला दे। ऊपर के वाक्यों में मोहन को आदेश दिए गए हैं। इन वाक्यों में आप सर्वनाम का इस्तेमाल करते हुए उन्हें दुबारा लिखिए।
उत्तर-
1.तुम थोड़ा दही तो बाज़ार से ला दो।
2.तुम ये कपड़े धोबी को दे आओ।
3.तुम एक किलो आलू तो ला दो।
महत्वपूर्ण शब्दावली
- प्रतिद्वंद्वी: मुकाबला करने वाला, प्रतिस्पर्धी।
- मेधावी: तीव्र बुद्धि वाला, कुशाग्र।
- निहाई: लोहे का वह चौकोर टुकड़ा जिस पर रखकर लोहार लोहे को पीटता है।
- घन: बड़ा हथौड़ा जिससे लोहे को पीटा जाता है।
- सँडसी: गर्म लोहे को पकड़ने का औज़ार।
- धौंकनी: आग दहकाने वाली नली।
- आफर: लोहार की भट्ठी या कार्यस्थल।
- बिरादरी: जाति समूह, समुदाय।
- सर्जक: रचनाकार, निर्माता।
- कुशाग्र: तीव्र बुद्धि वाला।
- लक्ष्योन्मुख: लक्ष्य की ओर उन्मुख, केंद्रित।
- दारिद्र्य: गरीबी, निर्धनता।
समझने के लिए टिप्स:
- यह कहानी सामाजिक यथार्थ और जातिगत विभाजन पर केंद्रित है। इसे इसी संदर्भ में समझें।
- 'गलता लोहा' शीर्षक प्रतीकात्मक है—यह जातिगत कठोरता के पिघलने और मानवीय संवेदना के उभरने का प्रतीक है।
- मास्टर त्रिलोक सिंह के चरित्र में शिक्षा व्यवस्था की विसंगतियों और जातिगत भेदभाव को देखें।
- मोहन और धनराम के जीवन की तुलना करें—दोनों अलग-अलग कारणों से अपनी प्रतिभा को पूरा नहीं कर पाते।
- कहानी का अंत आशावादी है, जो जातिगत बंधनों से मुक्ति और भाईचारे की संभावना दिखाता है।