विदाई-संभाषण
- बालमुकुंद गुप्त | कक्षा 11 हिंदी आरोह
पाठ का सारांश
'विदाई-संभाषण' लेखक बालमुकुंद गुप्त द्वारा लिखित प्रसिद्ध व्यंग्य कृति 'शिवशंभु के चिट्ठे' का एक अंश है। यह पाठ भारत के वायसराय लॉर्ड कर्ज़न (शासनकाल 1899-1904 एवं 1904-1905) के इस्तीफ़ा देकर वापस इंग्लैंड जाने के अवसर पर लिखा गया एक व्यंग्यात्मक लेख है।
लेखक ने इस पाठ में कर्ज़न के शासन को 'दुःखान्त नाटक' बताते हुए भारतीय जनता की बेबसी, दुःख और लाचारी का चित्रण किया है। लेखक व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि बिछुड़न (विदाई) का समय बड़ा करुण होता है, और भारत में तो पशु-पक्षी भी विदाई के समय उदास हो जाते हैं (जैसे शिवशंभु की गायों की कहानी), फिर मानवों की क्या दशा होगी।
पाठ में कर्ज़न की ज़िद और निरंकुशता पर गहरा प्रहार किया गया है। लेखक ने बंगाल विभाजन (बंग-विच्छेद) की ऐतिहासिक घटना का ज़िक्र करते हुए बताया कि कैसे कर्ज़न ने आठ करोड़ प्रजा की गिड़गिड़ाकर की गई प्रार्थना को अनसुना कर दिया और अपनी ज़िद पूरी की। लेखक कर्ज़न की तुलना क्रूर तानाशाह नादिरशाह से करते हुए कर्ज़न को उससे भी अधिक हठी बताते हैं, क्योंकि नादिरशाह ने भी एक प्रार्थना पर क़त्लेआम रोक दिया था।
अंत में, लेखक कर्ज़न के पतन पर व्यंग्य करते हैं कि जो वायसराय भारत में ईश्वर और महाराज एडवर्ड के बाद तीसरे स्थान पर था, जिसकी शान अलिफ़ लैला के ख़लीफ़ा से भी बढ़कर थी, उसे अपने ही देश में एक फ़ौजी अफ़सर की नियुक्ति के मामले में नीचा देखना पड़ा और अपमानित होकर इस्तीफ़ा देना पड़ा। यह पाठ 'तीसरी शक्ति' (ईश्वर/भाग्य) के नियंत्रण को भी रेखांकित करता है।
एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तक के प्रश्न-उत्तर
पाठ के साथ (पृष्ठ 52)
प्रश्न 1: शिवशंभु की दो गायों की कहानी के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
उत्तर-
लेखक शिवशंभु की दो गायों की कहानी के माध्यम से यह कहना चाहता है कि बिछुड़न (अलगाव) का समय बहुत करुणोत्पादक (करुणा उत्पन्न करने वाला) होता है।
1.शिवशंभु के पास दो गायें थीं—एक बलवान (बलशाली) और दूसरी कमज़ोर। बलवान गाय अक्सर कमज़ोर गाय को सींगों की टक्कर से गिरा देती थी।
2.जब बलवान गाय को पुरोहित को दे दिया गया, तो लेखक ने देखा कि दुर्बल (कमज़ोर) गाय प्रसन्न नहीं हुई, बल्कि वह उस दिन भूखी खड़ी रही और चारा तक नहीं छुआ।
3.इस कहानी के माध्यम से गुप्त जी यह दर्शाते हैं कि जिस देश के पशु-पक्षियों में भी विरह के समय इतना प्रेम, शांत रस और सद्भाव होता है, वहाँ के मनुष्यों की मनोदशा कितनी दुखी होगी, जब वायसराय कर्ज़न जैसे आँततायी शासक भी दुःखान्त तरीके से जा रहे हैं।
प्रश्न 2: आठ करोड़ प्रजा के गिड़गिड़ाकर विच्छेद न करने की प्रार्थना पर आपने ज़रा भी ध्यान नहीं दिया—यहाँ किस ऐतिहासिक घटना की ओर संकेत किया गया है?
उत्तर-
यहाँ जिस ऐतिहासिक घटना की ओर संकेत किया गया है, वह बंगाल का विभाजन (बंग-विच्छेद) है।
1.लॉर्ड कर्ज़न ने बंग देश के सिर पर आरह (आरा/विभाजन की तलवार) रख दी थी।
2.भारतवासी आठ करोड़ प्रजा थे, जिन्होंने गिड़गिड़ाकर बंग-विच्छेद को रोकने की प्रार्थना की।
3.लेखक ने कर्ज़न की हठधर्मिता की तुलना नादिरशाह से करते हुए कहा कि जब नादिरशाह ने दिल्ली में क़त्लेआम किया था, तो उसने आसिफ़जाह की तलवार गले में डालकर की गई प्रार्थना पर क़त्लेआम तुरंत रोक दिया था, लेकिन कर्ज़न ने प्रजा की विनती पर जरा भी ध्यान नहीं दिया। कर्ज़न ने विच्छेद किए बिना घर जाना स्वीकार नहीं किया।
प्रश्न 3: कर्ज़न को इस्तीफ़ा क्यों देना पड़ गया?
उत्तर-
लॉर्ड कर्ज़न को इस्तीफ़ा (पद-त्याग) देने का मुख्य कारण सरकारी निरंकुशता को स्थापित करने की उनकी ज़िद और जंगी लाट (सेनाध्यक्ष) से हुआ टकराव था।
1.कर्ज़न ने हमेशा अंग्रेज़ों का वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश की और वह प्रेस की स्वतंत्रता पर भी प्रतिबंध लगाने के पक्षधर थे।
2.इस्तीफ़ा देने की नौबत तब आई जब वायसराय और जंगी लाट के बीच फ़ौजी अफ़सरों की नियुक्ति के मुद्दे पर विवाद हो गया।
3.कर्ज़न एक फौजी अफ़सर को उसकी इच्छित पद पर नियुक्त करवाना चाहते थे, लेकिन ब्रिटेन में उनके स्वदेश में जंगी लाट के मुकाबले में कर्ज़न को नीचा देखना पड़ा। कर्ज़न की इस्तीफ़ा देने की धमकी स्वीकार कर ली गई और उनके रखाए हुए एक आदमी को नौकर न रखा गया।
प्रश्न 4: विचारिए तो, क्या शान आपकी इस देश में थी और अब क्या हो गई! कितने ऊँचे होकर आप कितने नीचे गिरे! — आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
इस कथन का आशय (मतलब) लॉर्ड कर्ज़न के भारत में प्राप्त अतुलनीय वैभव (शान) और पदच्युति (पतन) के बीच के घोर दुःखान्त अंतर को दर्शाना है।
1. शान और ऊँचाई: दिल्ली दरबार में कर्ज़न की शान ऐसी थी जो अलिफ़ लैला के अलहदीन या बग़दाद के ख़लीफ़ा ने भी नहीं देखी होगी। उनकी कुर्सी सोने की थी, जबकि महाराज एडवर्ड के छोटे भाई की चाँदी की। ईश्वर और महाराज एडवर्ड के बाद कर्ज़न का ही दर्जा था।
2. पतन और नीचाई: कर्ज़न ने इस्तीफ़ा देने की धमकी दी, पर उनकी बात नहीं मानी गई और धमकी मंज़ूर कर ली गई। उन्हें जंगी लाट के मुकाबले में पटखनी खानी पड़ी और उन्हें सिर के बल नीचे आते दिखाया गया। इस प्रकार वह पद और गरिमा की चरम ऊँचाई से अपमानजनक ढंग से नीचे गिरे।
प्रश्न 5: आपके और यहाँ के निवासियों के बीच में कोई तीसरी शक्ति और भी है— यहाँ तीसरी शक्ति किसे कहा गया है?
उत्तर-
यहाँ तीसरी शक्ति को उस अदृश्य शक्ति के रूप में कहा गया है, जिस पर न तो लॉर्ड कर्ज़न का काबू है और न ही भारत के निवासियों का।
1.कर्ज़न ने कल्पना की थी कि वह यहाँ के चिरस्थायी वायसराय हो जाएँगे, जबकि भारतवासी उनकी दूसरी बार वापसी पर दुखी थे और चाहते थे कि वह जल्दी चले जाएँ।
2.लेकिन कर्ज़न का शासनकाल इतनी जल्दी पूरा हो गया कि न तो उन्होंने और न ही निवासियों ने सोचा था।
3.यह तीसरी शक्ति नियति, ईश्वर या भाग्य है, जो वायसराय को भी अपनी मर्ज़ी से यहाँ चिरस्थायी नहीं होने देती। यह शक्ति परदे के पीछे रहकर लीलामय की तरह नाटक का संचालन करती है।
पाठ के आस-पास
प्रश्न 1: पाठ का यह अंश शिवशंभु के चिट्ठे से लिया गया है। शिवशंभु नाम की चर्चा पाठ में भी हुई है। बालमुकुंद गुप्त ने इस नाम का उपयोग क्यों किया होगा?
उत्तर-
बालमुकुंद गुप्त ने शिवशंभु नाम के काल्पनिक चरित्र का उपयोग निम्नलिखित कारणों से किया होगा:
1.शिवशंभु व्यंग्य का माध्यम है: शिवशंभु एक दीन ब्राह्मण और भोले भाले व्यक्ति (चरित्र) का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे भोलापन और विनोदप्रियता के साथ संगीन (गंभीर) बातों को सहज रूप में कहने की स्वतंत्रता मिलती है।
2.निर्भीकता और सुरक्षा: यह गद्य उस समय लिखा गया था जब प्रेस पर पाबंदी का दौर चल रहा था। शिवशंभु की आड़ में लेखक सीधे तौर पर वायसराय कर्ज़न की सरकारी निरंकुशता पर निर्भीक रूप से हमला कर सकते थे, जिससे शासन के विरोध का सीधा आरोप उन पर न लगे।
3.व्यंग्य-विनोद का पुट: शिवशंभु की भोली-भाली बातें व्यंग्य-विनोद से भरी होती थीं, जिससे कठोर सत्य भी रोचक और रोमांचक बन जाता था।
प्रश्न 2: नादिर से भी बढ़कर आपकी ज़िद है— कर्ज़न के संदर्भ में क्या आपको यह बात सही लगती है? पक्ष या विपक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर-
कर्ज़न के संदर्भ में लेखक का यह कथन पूरी तरह सही (पक्ष) लगता है।
1. नादिरशाह की मानवता: नादिरशाह क्रूर और तानाशाह होते हुए भी आसिफ़जाह की तलवार गले में डालकर की गई प्रार्थना पर दिल्ली में क़त्लेआम तुरंत रोक देता है। उसने प्रजा के अनुरोध पर ध्यान दिया।
2. कर्ज़न की हठधर्मिता: कर्ज़न ने आठ करोड़ प्रजा के गिड़गिड़ाकर बंग-विच्छेद न करने की प्रार्थना पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। कर्ज़न अपनी मर्ज़ी के विरुद्ध कोई काम नहीं करना चाहते थे।
3. नादिरशाह का कृत्य क्षणिक क्रोध का परिणाम था, जबकि कर्ज़न की ज़िद सरकारी निरंकुशता को स्थापित करने की थी। नादिर ने जहाँ हिंसा रोकी, वहीं कर्ज़न ने जनता के मन को पीड़ित करने वाले विच्छेद को अंजाम दिया, यह जानते हुए भी कि जनता दुखी है।
प्रश्न 3: क्या आँख बंद करके मनमाने हुक्म चलाना और किसी की कुछ न सुनने का नाम ही शासन है?—इन पंक्तियों को ध्यान में रखते हुए शासन क्या है? इस पर चर्चा कीजिए।
उत्तर-
लेखक की इन पंक्तियों के आलोक में (ध्यान में रखते हुए), शासन वह नहीं है जो आँख बंद करके मनमाने हुक्म चलाता है और प्रजा की बात नहीं सुनता।
1.शासन (सच्चा शासन) वह है जिसमें शासक और प्रजा के प्रति कर्त्तव्य (उत्तरदायित्व) की भावना होती है। शासक का पहला कर्तव्य है कि वह प्रजा की बात पर कान दे, उनकी प्रार्थना और अनुरोध को सुने और उनके हित में फैसले ले।
2.कर्ज़न का शासन निरंकुशता का उदाहरण था, जहाँ प्रजा को दबाकर और उनकी मर्ज़ी के विरुद्ध काम किए जाते थे।
3.सच्चा शासन वह है जो कैसर और ज़ार (रूसी तानाशाह) जैसे निरंकुश शासकों की तरह भी घेरने-घोटने (दबाव) पर प्रजा की बात सुन लेता है। शासन को प्रजा के सुख और शान्ति को सुनिश्चित करना चाहिए, न कि उन्हें गर्म तवे पर पानी की बूँदों की भाँति नचाना।
प्रश्न 4: इस पाठ में आए अलिफ़ लैला, अलहदीन, अबुल हसन और बग़दाद के ख़लीफ़ा के बारे में सूचना एकत्रित कर कक्षा में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
ये सभी नाम अरबी कथाओं (अलिफ़ लैला / अरेबियन नाइट्स) के पात्र हैं, जिनका उल्लेख लॉर्ड कर्ज़न की शान को अतुलनीय सिद्ध करने के लिए किया गया है।
1.अलिफ़ लैला: यह अरबी कहानियों का संग्रह है, जिसे अरब की पौराणिक कथाएँ माना जाता है, जो जादुई और अद्भुत ख़ज़ानों से भरी होती हैं।
2.अलहदीन (अलादीन): अलिफ़ लैला की कहानी का एक प्रसिद्ध पात्र जिसने चिराग रगड़कर अद्भुत शान और धन प्राप्त किया था।
3.अबुल हसन और बग़दाद के ख़लीफ़ा: अबुल हसन भी अलिफ़ लैला का एक पात्र है, जिसने बग़दाद के ख़लीफ़ा की गद्दी पर आँख खोलकर शान देखी थी।
4.लेखक इन पात्रों का उल्लेख करके यह दर्शाता है कि कर्ज़न ने दिल्ली दरबार में जो शान और अधिकार देखा, वह इतना बढ़-चढ़कर था कि इन जादुई कथाओं के पात्रों को भी वह शान मिलना असंभव था।
भाषा की बात
प्रश्न 1: वे दिन-रात यही मनाते थे कि जल्द श्रीमान् यहाँ से पधारें। सामान्य तौर पर आने के लिए 'पधारें' शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। यहाँ 'पधारें' शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर-
सामान्य तौर पर 'पधारें' शब्द का इस्तेमाल आदरपूर्वक 'आने' के लिए किया जाता है।
किंतु, इस पाठ में, विशेषकर व्यंग्य के संदर्भ में, जब भारतवासी दिन-रात प्रार्थना कर रहे थे कि "श्रीमान जल्द यहाँ से पधारें", तो यहाँ 'पधारें' शब्द का अर्थ 'जल्दी चले जाएँ' या 'विदा हो जाएँ' है। यह प्रयोग उर्दू और भारतेंदु-युगीन हिंदी की एक विशिष्ट शैली को दर्शाता है, जहाँ कड़वी बात भी आदर के बाँकपन के साथ कही जाती है।
प्रश्न 2: पाठ में से कुछ वाक्य नीचे दिए गए हैं, जिनमें भाषा का विशिष्ट प्रयोग (भारतेंदु युगीन हिंदी) हुआ है। उन्हें सामान्य हिंदी में लिखिए—
उत्तर-
1. Original: आगे भी इस देश में जो प्रधान शासक आए, अंत को उनको जाना पड़ा।
सामान्य हिंदी: इस देश में आगे भी जो प्रधान शासक आए थे, अंत में उन्हें जाना पड़ा।
2. Original: आप किस को आए थे और क्या कर चले?
सामान्य हिंदी: आप किस काम के लिए आए थे और क्या करके चले गए?
3. Original: उनका रखाया एक आदमी नौकर न रखा।
सामान्य हिंदी: उनके द्वारा नियुक्त (रखाया) किया गया एक भी आदमी नौकर नहीं रखा गया।
4. Original: पर आशीर्वाद करता हूँ कि तू फिर उठे और अपने प्राचीन गौरव और यश को फिर से लाभ करे।
सामान्य हिंदी: पर मैं आशीर्वाद करता हूँ कि तू फिर से उठे और अपने प्राचीन गौरव और यश को फिर से प्राप्त (लाभ) करे।
महत्वपूर्ण शब्दावली
- विदाई-संभाषण: विदाई के समय दिया जाने वाला भाषण।
- व्यंग्य: ऐसी बात जो ऊपरी तौर पर कुछ और लगे, पर उसका असली अर्थ ताना या मज़ाक उड़ाना हो।
- वायसराय: ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में राजा (महाराज/महारानी) का प्रतिनिधि।
- करुणोत्पादक: करुणा या दुःख उत्पन्न करने वाला।
- बंग-विच्छेद: बंगाल का विभाजन (1905)।
- हठधर्मिता: ज़िद, अपनी बात पर अड़े रहना।
- निरंकुशता: जिस पर कोई अंकुश या रोक न हो, तानाशाही।
- जंगी लाट: सेना का सर्वोच्च अधिकारी, कमांडर-इन-चीफ़।
- पदच्युति: पद से हटाया जाना, पतन।
- लीलामय: ईश्वर (जो लीला या खेल करता है)।
- चिरस्थायी: हमेशा बने रहने वाला।
समझने के लिए टिप्स:
- इस पाठ को एक व्यंग्य लेख (satire) के रूप में पढ़ें। लेखक का उद्देश्य कर्ज़न की प्रशंसा करना नहीं, बल्कि उन पर प्रहार करना है।
- 'शिवशंभु के चिट्ठे' की शैली को समझें, जिसमें गंभीर राजनीतिक बातें भी विनोदपूर्ण ढंग से कही गई हैं।
- 'बंगाल विभाजन' (बंग-विच्छेद) की ऐतिहासिक घटना को पाठ का मुख्य आधार मानें।
- कर्ज़न और नादिरशाह की तुलना पर विशेष ध्यान दें, यह व्यंग्य का मुख्य बिंदु है।
- पाठ की भाषा पर ध्यान दें, जो 'भारतेंदु युगीन हिंदी' है (जिसमें उर्दू और तत्सम शब्दों का मिश्रण है)।
यह प्रतिक्रिया विशेष रूप से आपकी पिछली बातचीत में चर्चा किए गए पाठ 'गलता लोहा' के अभ्यासों पर आधारित है, जिसके स्रोत अब उपलब्ध कराए गए हैं। दिए गए निर्देशों के अनुसार, सभी प्रश्नों और उनके उत्तरों को कक्षा 11 के मानक के अनुरूप प्रस्तुत किया गया है।
यह पाठ शेखर जोशी द्वारा लिखित कहानी है, जो सामाजिक यथार्थ और जातिगत विभाजन पर टिप्पणी करती है।
पृष्ठ संख्या: 65
पाठ के साथ
प्रश्न 1: कहानी के उस प्रसंग का उल्लेख करें, जिसमें किताबों की विद्या और घन चलाने की विद्या का ज़िक्र आया है।
उत्तर-
यह प्रसंग तब आया जब मास्टर त्रिलोक सिंह ने धनराम को तेरह का पहाड़ा याद न कर पाने पर अपमानित किया।
- किताबों की विद्या का प्रसंग: मास्टर त्रिलोक सिंह ने गुस्से में धनराम को फटकारते हुए कहा था, "तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें!"। धनराम के पिता (गंगाराम) की इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि वह किताबों की विद्या का ताप लगा सकें।
- घन चलाने की विद्या का प्रसंग: धनराम के हाथ-पैर चलाने लायक होते ही, बाप ने उसे धौंकनी फूँकने या सान लगाने के कामों में उलझाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उसने हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सीख ली और गंगाराम की विरासत संभाल ली।
प्रश्न 2: धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी क्यों नहीं समझता था?
उत्तर-
धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी (मुकाबला करने वाला) नहीं समझता था, इसके निम्नलिखित कारण थे:
- जातिगत हीनता: बचपन से ही उसके मन में बैठा दी गई जातिगत हीनता का भाव था। मोहन ब्राह्मण टोले (पुरोहित खानदान) का था, जबकि धनराम शिल्पकार टोले का।
- अधिकार भाव: धनराम इस बात को मोहन का अधिकार ही समझता था कि वह (मोहन) मास्टर त्रिलोक सिंह के आदेश पर सजा पाए छात्रों (हमजोलियों) के कान खिंचवाए या उन्हें बेंत मारे।
- भविष्यवाणी का प्रभाव: मास्टर त्रिलोक सिंह ने यह भविष्यवाणी की थी कि मोहन एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनकर स्कूल का नाम ऊँचा करेगा। इस बात ने धनराम के लिए किसी और तरह से सोचने की गुंजाइश ही नहीं रखी थी।
प्रश्न 3: धनराम को मोहन के किस व्यवहार पर आश्चर्य होता है और क्यों?
उत्तर-
धनराम को मोहन के शिल्पकार टोले में आकर लोहार का काम करने में हस्तक्षेप करने पर आश्चर्य होता है।
- आश्चर्य का कारण: धनराम लोहे की एक मोटी छड़ को गोलाई में मोड़ने की कोशिश कर रहा था, लेकिन निहाई पर सिरा ठीक घाट में न फँसने के कारण वह सफल नहीं हो पा रहा था। मोहन ने संकोच त्यागकर हस्तक्षेप किया, सँडसी से लोहे को स्थिर किया, और अभ्यस्त हाथों से ठोकते-पीटते त्रुटिहीन गोले का रूप दे डाला।
- व्यवहार पर आश्चर्य: धनराम को मोहन की कारीगरी पर उतना आश्चर्य नहीं हुआ, जितना पुरोहित खानदान के एक युवक का इस तरह के काम में, उसकी भट्ठी (आफर) पर बैठकर, हाथ डालने पर हुआ था। ब्राह्मण टोले के लोगों के लिए शिल्पकार टोले में बैठना मर्यादा के विरुद्ध माना जाता था।
प्रश्न 4: मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को लेखक ने उसके जीवन का एक नया अध्याय क्यों कहा है?
उत्तर-
लेखक ने मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को उसके जीवन का एक नया अध्याय कहा है, क्योंकि उसका जीवन गाँव के मेधावी छात्र के जीवन से बिल्कुल अलग हो गया था:
- मेधावी से नौकर बनना: गाँव में वह पुरोहिती से ऊपर उठकर बड़ा आदमी बनने का सपना देख रहा था, लेकिन लखनऊ में वह रमेश के घर घरेलू नौकर की हैसियत में आ गया।
- कामकाज में व्यस्तता: वह चाची और भाभी का हाथ बँटाने के अलावा मुहल्ले की अन्य महिलाओं के लिए भी काम-काज में हाथ बँटाने का साधन बन गया।
- पहचान का अभाव: नये वातावरण और रात-दिन के काम के बोझ के कारण, गाँव का वह मेधावी छात्र शहर के स्कूली जीवन में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। उसका जीवन एक बँधी-बंधाई लीक पर चलता रहा।
प्रश्न 5: मास्टर त्रिलोक सिंह के किस कथन को लेखक ने ज़बान के चाबुक कहा है और क्यों?
उत्तर-
मास्टर त्रिलोक सिंह के इस कथन को लेखक ने ज़बान के चाबुक कहा है: "तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें!"।
- ज़बान के चाबुक का कारण: यह कथन धनराम को शारीरिक दंड (बेंत का उपयोग) दिए बिना मानसिक पीड़ा और अपमान देने वाला था।
- कथन की गंभीरता: मास्टर का यह कथन सीधे तौर पर शिल्पकार जाति के प्रति भेदभाव और अविश्वास को दर्शाता था। इससे धनराम के मन में यह विश्वास पक्का हो गया कि वह लोहार होने के कारण किताबों की विद्या ग्रहण करने में असमर्थ है, क्योंकि उसका दिमाग लोहे जैसा भारी है।
प्रश्न 6: (1) बिरादरी का यही सहारा होता है।
1. किसने किससे कहा?
यह बात बूढ़े वंशीधर जी ने रमेश से भरे गले से कही थी।
2. किस प्रसंग में कहा?
यह प्रसंग तब आया जब रमेश ने छुट्टियों में गाँव आने पर, वंशीधर की मोहन की आगे की पढ़ाई के संबंध में चिंता सुनी और सहूलियत दिखाते हुए मोहन को अपने साथ लखनऊ ले जाकर पढ़ाने का सुझाव दिया।
3. किस आशय से कहा?
वंशीधर ने यह बात कृतज्ञता, आभार और आशा के आशय से कही। उन्हें लगा कि रमेश (बिरादरी का व्यक्ति) साक्षात् भगवान के रूप में आए हैं और बिरादरी का सहारा देकर उनके वंश का दारिद्र्य (गरीबी) मिटा देंगे।
4. क्या कहानी में यह आशय स्पष्ट हुआ है?
नहीं, कहानी में यह आशय स्पष्ट नहीं हुआ है। रमेश ने बिरादरी का नाम इस्तेमाल किया, लेकिन लखनऊ में मोहन को घरेलू नौकर से अधिक हैसियत नहीं दी। मोहन को सुविधा की जगह असुविधा मिली और उसका भविष्य बंद गया।
प्रश्न 6: (2) उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी— कहानी का यह वाक्य—
1. किसके लिए कहा गया है?
यह वाक्य मोहन के लिए कहा गया है।
2. किस प्रसंग में कहा गया है?
यह प्रसंग तब आया जब मोहन ने धनराम की भट्ठी पर बैठकर, लोहे की मोटी छड़ को कुशलतापूर्वक ठोक-पीटकर त्रुटिहीन गोलाई का सुघड़ गोला बना दिया था।
3. यह पात्र-विशेष के किन चारित्रिक पहलुओं को उजागर करता है?
यह मोहन के निम्नलिखित चारित्रिक पहलुओं को उजागर करता है:
- सर्जक की कुशलता: यह चमक मोहन की जन्मजात कारीगरी और शिल्पकार हुनर को दर्शाती है।
- जातिगत रूढ़ियों का खंडन: मोहन ने ब्राह्मण टोले की सामाजिक मर्यादा और संकोच को त्यागकर शारीरिक श्रम और शिल्प को महत्व दिया।
- निःस्वार्थ संतुष्टि: उसकी चमक में न स्पर्धा थी और न ही किसी प्रकार की हार-जीत का भाव था। उसे अपने काम की त्रुटिहीन सफलता से संतुष्टि मिली।
पाठ के आस-पास
प्रश्न 1: गाँव और शहर, दोनों जगहों पर चलने वाले मोहन के जीवन-संघर्ष में क्या फ़र्क है? चर्चा करें और लिखें।
उत्तर-
मोहन के जीवन संघर्ष में यह फर्क था कि गाँव में उसका संघर्ष भौगोलिक था, लेकिन लक्ष्योन्मुख था, जबकि शहर में उसका संघर्ष सामाजिक और मानसिक था जिसने उसके मेधावी व्यक्तित्व को समाप्त कर दिया।
- गाँव का संघर्ष: गाँव में संघर्ष का स्वरूप सीधा और भौतिक था। उसे स्कूल जाने के लिए चार मील की दूरी तय करनी पड़ती थी, जिसमें बरसात के मौसम में नदी पार करने की समस्या भी थी। इस संघर्ष के बावजूद वह मेधावी रहा, छात्रवृत्ति प्राप्त की और पिता के प्रोत्साहन से भरा रहा।
- शहर का संघर्ष: शहर में उसका संघर्ष रमेश के घर घरेलू नौकर (हाथ बँटाने का साधन) बनने का था। काम के बोझ के कारण उसकी मेधावी बुद्धि कुंद हो गई। वह अपनी वास्तविक स्थिति को घरवालों को बताकर दुखी नहीं करना चाहता था। यह संघर्ष परिस्थितियों से समझौता करने की विवशता का था, जहाँ उसके भविष्य को दूसरों की सुविधा-असुविधा (रमेश) के लिए त्याग दिया गया।
प्रश्न 2: एक अध्यापक के रूप में त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व आपको कैसा लगता है? अपनी समझ में उनकी खूबियों और खामियों पर विचार करें।
उत्तर-
मास्टर त्रिलोक सिंह का व्यक्तित्व कड़े अनुशासन और मेधा के सम्मान के साथ-साथ जातिगत रूढ़ियों और क्रूरता से भरा हुआ था।
-
खूबियाँ:
- मेधा की पहचान: वह मोहन जैसे कुशाग्र बुद्धि और गायन में बेजोड़ छात्रों को पहचानते थे और प्रोत्साहित करते थे (उसे स्कूल का मॉनिटर बनाया)।
- अनुशासन: उनकी छड़ी का डर बच्चों में आख़िरी दम तक बना रहता था। वह स्कूल में कड़ा अनुशासन रखते थे।
-
खामियाँ:
- जातिगत भेदभाव: वह ब्राह्मण छात्रों (मोहन) से शिल्पकार टोले के छात्रों (धनराम) को दंड दिलवाते थे।
- अपमानजनक भाषा: उन्होंने धनराम को उसकी जाति और बुद्धि के आधार पर अपमानित करने के लिए ज़बान के चाबुक का इस्तेमाल किया।
- क्रूर दंड प्रणाली: सजा पाने वाले से ही अपने लिए हथियार (बेंत) जुटवाना उनका सामान्य नियम था, जिसमें मास्टर की संतुष्टि का ध्यान रखा जाता था।
प्रश्न 3: गलता लोहा कहानी का अंत एक ख़ास तरीक़े से होता है। क्या इस कहानी का कोई अन्य अंत हो सकता है? चर्चा करें।
उत्तर-
गलता लोहा कहानी का अंत खास तरीके से मोहन के निःसंकोच भाव से धनराम की भट्ठी (आफर) पर बैठकर लोहा मोड़ने और त्रुटिहीन गोलाई देने से होता है। यह अंत जातिगत मर्यादाओं के टूटने और मेहनतकशों के सच्चे भाईचारे की प्रस्तावना करता है, जहाँ लोहा गलकर नया आकार लेता है।
एक अन्य संभावित अंत हो सकता है, लेकिन वह लेखक के प्रगतिशील दृष्टिकोण के विपरीत होगा:
- निराशाजनक या यथार्थवादी अंत: मोहन लखनऊ में तकनीकी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद भी कारखानों और फैक्ट्रियों के चक्कर लगाने के बाद बेरोज़गार रह जाता। गाँव लौटकर वह वंशीधर के बूते की पुरोहिती संभालने की कोशिश करता। वह हँसुवे में धार लगवाने धनराम की दुकान पर आता, लेकिन ब्राह्मण टोले की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए खड़े-खड़े बातचीत निपटाकर चला जाता। वह लोहे को नहीं छूता और पुरानी रूढ़ियाँ नहीं गलती। यह अंत सामाजिक विषमता को स्थायी रूप देता।
भाषा की बात
प्रश्न 1: पाठ में निम्नलिखित शब्द लौहकर्म से संबंधित हैं। किसका क्या प्रयोजन है? शब्द के सामने लिखिए—
| शब्द | प्रयोजन |
|---|---|
| धौंकनी | लोहार या सुनारों की आग दहकाने वाली लोहे या बाँस की नली है। |
| दराँती | घास काटने का औज़ार (हँसुवे का पर्याय) है। |
| सँडसी | गर्म लोहे को पकड़कर स्थिर करने का औज़ार है। |
| आफर | लोहार की दुकान या कार्यस्थल है, जहाँ भट्ठी होती है। |
| हथौड़ा | लोहे को पीटकर आकार देने का औज़ार है। |
प्रश्न 2: पाठ में काट-छाँटकर जैसे कई संयुक्त क्रिया शब्दों का प्रयोग हुआ है। कोई पाँच शब्द पाठ में से चुनकर लिखिए और अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए।
-
काट-छाँटकर
वाक्य प्रयोग: मोहन खेतों के किनारे उग आई काँटेदार झाड़ियों को काट-छाँटकर साफ़ कर आने के उद्देश्य से घर से निकला था। -
उलट-पलट रहा था
वाक्य प्रयोग: धनराम दाएँ हाथ से भट्ठी में गर्म होते लोहे को उलट-पलट रहा था। -
बनकर लौटेगा
वाक्य प्रयोग: वंशीधर को विश्वास था कि मोहन एक दिन बड़ा अफसर बनकर लौटेगा। -
चल बसे
वाक्य प्रयोग: एक दिन गंगाराम अचानक चल बसे तो धनराम ने उनकी विरासत संभाल ली। -
ठोकते-पीटते
वाक्य प्रयोग: मोहन ने अभ्यस्त हाथों से लोहे को निहाई पर रखकर ठोकते-पीटते सुघड़ गोले का रूप दे डाला।
प्रश्न 3: बूते का प्रयोग पाठ में तीन स्थानों पर हुआ है। उन्हें छाँटकर लिखिए और जिन सन्दर्भों में उनका प्रयोग है, उन सन्दर्भों में उन्हें स्पष्ट कीजिए।
1. बूढ़े वंशीधर जी के बूते का अब यह सब काम नहीं रहा। सन्दर्भ: इसका प्रयोग वंशधर की बढ़ती उम्र के कारण हुई शारीरिक शक्ति की कमी (सामर्थ्य) के लिए किया गया है। वे अब खेतों के किनारे उग आई झाड़ियों को काटने जैसा कठिन श्रम नहीं कर सकते थे।
2. यह दो मील की सीधी चढ़ाई अब अपने बूते की नहीं। सन्दर्भ: इसका प्रयोग रुद्रीपाठ करने गणनाथ जाने के लिए आवश्यक शारीरिक क्षमता (बल) के अभाव को दर्शाने के लिए किया गया है। उनका जर्जर शरीर अब यह कठिन श्रम नहीं झेल पाता था।
3. जनम भर जिस पुरोहिती के बूते पर उन्होंने घर संसार चलाया था... सन्दर्भ: यहाँ बूते का प्रयोग आधार, सहारे या माध्यम के अर्थ में किया गया है। वंशीधर ने पीढ़ियों से चले आ रहे पैतृक धंधे (पुरोहिती) को ही अपनी आजीविका का आधार बनाकर घर संसार चलाया था।
प्रश्न 4: मोहन! थोड़ा दही तो ला दे बाज़ार से। मोहन! ये कपड़े धोबी को दे तो आ। मोहन! एक किलो आलू तो ला दे। ऊपर के वाक्यों में मोहन को आदेश दिए गए हैं। इन वाक्यों में आप सर्वनाम का इस्तेमाल करते हुए उन्हें दुबारा लिखिए।
उत्तर-
- तुम थोड़ा दही तो बाज़ार से ला दो।
- तुम ये कपड़े धोबी को दे आओ।
- तुम एक किलो आलू तो ला दो।